संपर्क फ़ॉर्म

नाम

ईमेल *

संदेश *

गुरुवार, 22 फ़रवरी 2018

बच्चे ने प्रश्न किया ....कुसुम कोठरी


बच्चे  ने प्रश्न किया 
ममता क्या होती है ? 
मां ने कहा
तू हंसता मै तुझ में जीती
ममता यही होती है।

बच्चे ने प्रश्न किया
मां तूं कैसे जीती है ? 
मां ने कहा 
तूं मेरा प्रति पल जीता 
और मैं तुझ में जीती। 

बच्चे ने प्रश्न किया
मां तूं क्यो रोती है ? 
मां ने कहा
कभी तुझे जब ठेस लगे
तेरे दर्द से मैं रोती।

अब मां  ने प्रश्न किया
तू कौन है? 
तुझ से अलग कहां हूं मैं
तू है तो मैं हूं
तेरा ही अस्तित्व हूं मैं
तूं नही तो क्या हूं मैं ? 

-कुसुम कोठरी।

सोमवार, 19 फ़रवरी 2018

'मौन' बस बढ़ता चला जाता हूँ......अमित मिश्र 'मौन'

हर सुबह एक अलग नये सपने सजाता हूँ
शाम तलक उन्हें मैं खुद ही भूल जाता हूँ

ख्वाहिशें हज़ार ले कर रोज़ कमाने जाता हूँ
बेच के ईमान खाली जेबें नही भर पाता हूँ

है मेरा भी कोई अपना ये सब को बताता हूँ
पर हूँ सच में अकेला ये सबसे छुपाता हूँ

मिलेगा मौका हंसने का सोच के गम भुलाता हूँ
मुठ्ठी भर खुशियों को मैं फिर भी तरस जाता हूँ

हर दर पे हूँ भटकता तलाश तो पूरी हूँ करता
पर ढूंढ़ने क्या निकला ये समझ नही पाता हूँ

दिया जीवन खुदा ने तो कुछ मकसद होगा
ये सोच के यारों मैं मर भी नही पाता हूँ

बस थोड़ी है राहें अब जल्द मिलेगी मंजिल
ये सोच कर 'मौन' बस बढ़ता चला जाता हूँ
-अमित मिश्र 'मौन'

रविवार, 18 फ़रवरी 2018

जो आये तो तेरी याद आये...अमित मिश्र 'मौन'

नग़मे इश्क़ के कोई गाये तो तेरी याद आये
जिक्र मोहब्बत का जो आये तो तेरी याद आये

यूँ तो हर पेड़ पे डालें हज़ारों है निकली
टूट के कोई पत्ता जो गिर जाये तो तेरी याद आये

कितने फूलों से गुलशन है ये बगिया मेरी
भंवरा इनपे जो कोई मंडराये तो तेरी याद आये

चन्दन सी महक रहे इस बहती पुरवाई में
झोंका हवा का मुझसे टकराये तो तेरी याद आये

शीतल सी धारा बहे अपनी ही मस्ती में यहाँ
मोड़ पे बल खाये जो ये नदिया तो तेरी याद आये

शांत जो ये है सागर कितनी गहराई लिये
शोर करती लहरें जो गोते लगाये तो तेरी याद आये

सुबह का सूरज जो निकला है रौशनी लिये
ये किरणें हर ओर बिखर जाये तो तेरी याद आये

'मौन' बैठा है ये चाँद दामन में सितारे लिये
टूटता कोई तारा जो दिख जाये तो तेरी याद आये

-अमित मिश्र 'मौन' 

बुधवार, 7 फ़रवरी 2018

निर्झरी मैं निर्मल सुंदर.....कुसुम कोठारी


निर्झरी मैं
निर्मल सुंदर
क्या है उद्गम मेरा नही जानती
उतंग पहाड़ों का विलाप हूं
या महादेव की जटाओं से अच्युत
कोई जल धार
बस अब मै निर्झरी
गिरती ऊंचाईयों से बन निर्झर
चट्टानों से टकराती
फिर भी गुनगुनाती
कभी नही निश्चल निशब्द
मेरी अनुगूंज विराट तक
चल के गिरती फिर चलती
न रुकती न हारती कभी
गिरना चलना मेरी शान
कभी उदण्ड हो किनारे तोडती
मै निर्झरी
ऐसे पल भी आते
लगता पर्वतों का रुदन थम गया
मै रेत पर पसर तनवंगी सी
अपना अस्तित्व बचाने
स्वयं नैनो से अश्रु बहाती
इधर उधर फैला अपनी बांहे
रेत के बिछौने पर करवट बदलती
फिर नई भोर का इंतजार
जो मुझे फिर नव जीवन दे दे
भर दे मुझे फिर थला थल
मै निर्झरी ।
-कुसुम कोठारी

शनिवार, 3 फ़रवरी 2018

मृग तृष्णा .........डॉ. प्रभा मुजुमदार

अक्सर जिया है मैंने 
अपनी ही अधलिखी कहानियों 
और अपूर्ण ख़्वाबों को 
सपनों में अश्वमेध रचाकर 
कितनी ही बार 
अपने को चक्रवर्ती बनते देखा है 
रोशनी हमेशा ही 
एक क्रूर यंत्रणा रही है 
दबे पाँवों आकर 
चंद सुखी अहसासों 
और मीठे ख़्वाबों को 
समेट कर 
चील की तरह 
पंजों में ले भागती हुई 
एक खालीपन 
और लुटे पिटे होने का दंश 
बहुत देर तक 
सालता रहता है 
फिर किसी नये भुलावे तक।

-डॉ. प्रभा मुजुमदार