स्वर्णिम धूप, हरा मैदान
पीली सरसों हुई जवान
चुस्त हुआ, रंगों में नहा
लो देखो वयस्क हुआ उद्यान
झील में हैं कुछ श्वेत कमल
या बादल नभ पर रहे टहल
मृदु गान से कोयल के मोहित
हैं नाच रहे मोरों के दल
यूँ पवन की छेड़ाछेड़ी से
उद्विग्न हैं कालियाँ
फूलों का पा संरक्षण
निश्चिंत हैं कालियाँ
फूलों से चहुं ओर घिरे
भौंरे जैसे मद पान किए
ख़याल तेरा भी भंग पिए
आया बसंत को संग लिए
-दिव्या माथुर
बहुत ही सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर कविता है
जवाब देंहटाएंसुंदर
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंवाह, कमाल की रचना है। इसमें वसंत ऋतु की पूरी झलक साफ़ दिख रही है, स्वर्णिम धूप, सरसों के खेत, झील के कमल, कोयल की तान और मोरों का नाच सब मिलकर एक जीवंत चित्र बना देते हैं। पंक्तियों में ऐसा सौंदर्य है कि पढ़ते-पढ़ते लगता है जैसे सामने ही वसंत उतर आया हो।
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