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सोमवार, 19 फ़रवरी 2018

'मौन' बस बढ़ता चला जाता हूँ......अमित मिश्र 'मौन'

हर सुबह एक अलग नये सपने सजाता हूँ
शाम तलक उन्हें मैं खुद ही भूल जाता हूँ

ख्वाहिशें हज़ार ले कर रोज़ कमाने जाता हूँ
बेच के ईमान खाली जेबें नही भर पाता हूँ

है मेरा भी कोई अपना ये सब को बताता हूँ
पर हूँ सच में अकेला ये सबसे छुपाता हूँ

मिलेगा मौका हंसने का सोच के गम भुलाता हूँ
मुठ्ठी भर खुशियों को मैं फिर भी तरस जाता हूँ

हर दर पे हूँ भटकता तलाश तो पूरी हूँ करता
पर ढूंढ़ने क्या निकला ये समझ नही पाता हूँ

दिया जीवन खुदा ने तो कुछ मकसद होगा
ये सोच के यारों मैं मर भी नही पाता हूँ

बस थोड़ी है राहें अब जल्द मिलेगी मंजिल
ये सोच कर 'मौन' बस बढ़ता चला जाता हूँ
-अमित मिश्र 'मौन'

7 टिप्‍पणियां:

  1. जय मां हाटेशवरी....
    हर्ष हो रहा है....आप को ये सूचित करते हुए.....
    दिनांक 020/02/2018 को.....
    आप की रचना का लिंक होगा.....
    पांच लिंकों का आनंद
    पर......
    आप भी यहां सादर आमंत्रित है.....

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  2. दिया जीवन खुदा ने तो कुछ मकसद होगा
    ये सोच के यारों मैं मर भी नही पाता हूँ
    इसी उम्मीद में पूरा जीवन जी लेते हैं...
    बहुत ही शानदार अभिव्यक्ति...
    वाह!!!

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  3. वाह!!बहुत खूब । सच है उम्मीद पर ही जीवन टिका है ।

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  4. विसंगतियों में झूलता हुआ इंसान आशाओं के सहारे ही अपनी पूरी जिंदगी गुजार देता है । यह कविता बहुत अपनी सी लगी।शुभकामनाएँ ।

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  6. बहुत खूब । सच है उम्मीद पर ही जीवन टिका है ।
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